Thursday, September 15, 2011

गोपाल कृष्ण सक्सेना 'पंकज' की ग़ज़ल

पृष्ठ सारा भर गया
पृष्ठ सारा भर गया , बस हाशिया बाकी रहा ,
जिंदगी मैं मौत का ही काफिया बाकी रहा
अक्षरों के वंश में अब ताजपोशी के लिये ,
शिष्टता के नाम पर बस शुक्रिया बाकी रहा
जिंदगी हिस्से की अपनी,हम कभी के जी लिये ,
साँस ही लेने का अब तो सिलसिला बाकी रहा
मौत आई थी हमें लेने मगर जल्दी में थी ,
बोरिया तो ले गयी पर बिस्तरा बाकी रहा
लोग मिलते हैं हमें कोने -फटे - ख़त की तरह ,
गम गलत करने को केवल डाकिया बाकी रहा


शिव लगे सुन्दर लगे
शिव लगे, सुन्दर लगे , सच्ची लगे ,
बात कुछ ऐसी कहो , अच्छी लगे
मुद्दतों से मयकदों में बंद है ,
अब ग़ज़ल के जिस्म पर मिटटी लगे
गीत प्राणों का उपनिषद् था कभी ,
अब महज बाजार की रद्दी लगे
रक्स करती देह उनकी ख्वाब में ,
तैरती डल झील की रद्दी लगे
जुल्फ के झुरमुट में बिंदिया आपकी ,
आदिवासी गाँव की बच्ची लगे
याद माँ की उँगलियों की हर सुबह,
बाल में फिरती हुई कंघी लगे
जिंदगी अपनी समय के कुम्भ में ,
भीड़ में खोयी हुई लड़की लगे
जिस्म 'पंकज ' का हुआ खँडहर मगर,
आँख में बृज भूमि की मस्ती लगे

No comments:

Post a Comment