Sunday, November 28, 2010

'रागी ' जी का गीत


डा लक्ष्मण गणेश दीक्षित 'रागी' की ख्याति बुन्देलखंड के मधुर स्वरलहरी से संपन्न गीतकारों में है। रागी जी उ ० प्र ० के जनपद जालौन के मुख्यालय उरई के निवासी थे । बुन्देली भाषा के सुप्रसिद्ध कवि श्री शिवानन्द मिश्र 'बुंदेला ' के आप समकालीन थे। बुंदेला जी के शब्दों में ,"रागी जी साक्षात् रागावातर थेउनके बिना किसी भी कवि गोष्ठी के जीवन्त और सरस रहने की कल्पना नहीं की जा सकती थी ।"
प्रस्तुत है उनका एक गीत -
उस ओर झनकती प्रिय पायल
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उस ओर तुम्हारा स्वप्न महल ,इस ओर हमारा क्या होगा ?
तुम मन में सावन भर देती , सावन सा तन हो जाता है ;
स्मृति की छूकर तनक -पवन , गीला सा मन हो जाता है ;
उस ओर अपरिमित चहल-पहल, इस ओर सहारा क्या होगा ?
उस ओर .................................................................... ।
चुपके-चुपके जब मन भर कर , शीतल सुकुमारी सी रातें ;
बादल के आँगन में हँस-हँस , करती अपने से ही बातें ;
उस ओर झनकती प्रिय पायल ,घन-धैर्य बिचारा क्या होगा ?
उस ओर ..................................................................... ।
प्यासे अथाह सुख-सागर में , चाहों की नैय्या अटकी है ;
पतवार कहाँ ,मझधार कहाँ ,किस ओर कहाँ कब भटकी है ?
उस ओर किनारा है प्रतिपल ,इस ओर किनारा क्या होगा?
उस ओर ....................................................................।
दिन -रात थके इन नयनों में , जलधार बरसती रहती है ;
क्या पता तुन्हें इस जीवन में ,क्या पीर कसकती रहती है ?
मेरा तृ - तृ ,कण -कण घायल ,विश्वास हमारा क्या होगा ?
उस ओर .....................................................................।

Wednesday, February 24, 2010

'नश्तर' साहिब की ग़ज़ल

बाबू हरगोविंद दयाल श्रीवास्तव 'नश्तर' उर्दू अदब के एक नायाब फनकार थे । पेश है उनकी एक ग़ज़ल -
...................दास्ताँ ............................
बंधा कल कुछ ऐसा ,समां कहते-कहते ;
कि मै रो दिया , दास्ताँ कहते -कहते
फ़साना तो छेड़ा है ,डरता हूँ लेकिन ;
कहीं रुक जाये ,जुबाँ कहते -कहते
वो सुनने पै आयें ,तो खूबिये किस्मत ;
जुबाँ रुक गयी , दास्ताँ कहते -कहते
कोई चल दिया , दास्ताँ कहते-कहते ;
कोई रह गया, दास्ताँ कहते -कहते
जहाँ दास्ताओं का, रुकना सितम था ,
वहीँ रूक गया , दास्ताँ कहते -कहते
उन्हें डर है उनका, फ़साना कह दें ;
कहीं अपनी हम ,दास्ताँ कहते-कहते
जो दुश्मन करता,किया वह इन्होंने ;
जिन्हें हम थके ,दास्ताँ कहते -कहते
जुबाँ रोक ली है ,मुहब्बत में अक्सर ;
मुहब्बत की मजबूरियाँ कहते -कहते
कुछ ऐसी माहौल में , बेदिली थी;
कि मै खुद रूक गया,दास्ताँ कहते-कहते
उकताये जब , सुनने वाले हमारे ;
हमीं रुक गये, दास्ताँ कहते -कहते
उम्मीदें वफ़ा क्या करूँ ,उनसे 'नश्तर' ;
बदल दें जो अपनी जुबाँ कहते -कहते
(सौजन्य से -डा ० निर्मल सिन्हा )

Saturday, January 2, 2010

साहित्य के माध्यम से सामाजिक जागरूकता के प्रति समर्पित -'१ विकल उरई'





आपने अकसर कार, बस, ट्रेन आदि से यात्रा करते समय सड़क-रेलवे लाइन के आसपास की दीवारों पर, पुलों की कोठियों पर प्रेरक संदेश लिखे देखे होंगे जो जनता को सोचने पर विवश कर देते हैं । ऐसे संदेश आपको अपने शहर की गलियों में घूमते-टहलते भी लिखे दिख जाते होंगे।-
‘नमस्कार दिल से बोला, चाहे करो सलाम। मकसद सबका एक है, हो प्रेम भरा प्रणाम।’
इस तरह की मन को आकर्षित करने वाली,एवं लोगों में जागरूकता का संचार करने वाले संदेशों साथ ‘ विकल, उरई’ लिखा देखकर कई प्रश्न कौंधते हैं। कौन है यह' १ विकल'? कोई व्यक्ति है, संस्था है अथवा कोई धर्म है? कहीं यह किसी नये धार्मिक-सामाजिक आन्दोलन की शुरुआत तो नहीं है?
ऐसा कुछ भी नहीं है, '१ विकल' हम और आप जैसा एक साधारण इंसान है जो अन्तरात्मा की आवाज पर स्थान-स्थान पर वाल पेंटिंग के द्वारा लोगों को जागरूक करने का कार्य कर रहा है।' विकल' जी का वास्तविक नाम श्री जागेश्वर दयाल है। जनपद जालौन (उ0प्र0) के ग्राम बिरगुवाँ बुजुर्ग में इनका जन्म खांगर क्षत्रिय (परिहार ठाकुर) परिवार में हुआ।
अपने जन्म स्थान के निकट स्थित बैरागढ़ की देवी माँ शारदा को अपना इष्ट मानने वाले 1 विकल के आराध्यदेव श्री बाँकेबिहारी हैं। कानपुर विश्वविद्यालय के स्नातक जागेश्वर दयाल देश के सर्वांगींण विकास हेतु सभी धर्मों को एकसमान रूप से एक हो जाने की मान्यता पर बल देते हैं। इसी कारण उन्होंने एक राष्ट्रीय धर्म चिन्ह की कल्पना कर उसका निर्माण किया और उसको स्वीकार्यता प्रदान करवाने हेतु महामहिम राष्ट्रपति जी को विनम्र निवेदन भी किया है।
उनके सामाजिक संदेश देने वाले कुछ मुख्य नारे इस प्रकार हैं--
देश की बेटी करे पुकार,
हमें चाहिए सम अधिकार।

बेटा-बेटी एक समान,
तभी बढ़ेगा हिन्दुस्तान।
राजनीतिक पार्टियों से आयें कुशल कार्यकर्ता,
तभी बनेगी देश में शुद्ध आचार-संहिता।

राष्ट्र में हो जब एकीकरण
तभी बनेगा सामाजिक समीकरण।
धर्म नहीं पाखण्ड वहाँ, नफरत पैदा हो जिसमें जब एक उसी की संतानें, फिर भेदभाव है किसमें।
जाति और धर्म के नाम पर, इतना बड़ा धोखा।
बाहर से चकाचक, अन्दर से खोखा ही खोखा।।
बकवास करते हैं वे सब, जो कहते हमने खुदा देखा। अरे खाक देखा उसने खुदा, जिसने खुद को नहीं देखा।।
पहले खुद के खुदा को जानो, बाद में दूसरों की बात मानो।
इससे बड़ा न कोई खुदा है न भगवान, बस इतना ही जानो।।
हिन्दू संगठन हो या मुसलमानी जमात,
सबसे ऊँची राष्ट्र की बात।

नवजवानों के सामने है, रोजी रोटी का सवाल।
ये देश की समस्या है, इसका उपाय हो तत्काल।।
हम दलों की बात नहीं करते हैं, दिलों की बात करते हैं। वतन के काम आये जो, उन महफिलों की बात करते हैं।।
हर किसी के सामने झुको नहीं, लक्ष्य से पहले रुको नहीं।
कामयाबी मिलेगी तुम्हें, पर गलत जगह यों टिको नहीं।।
जो जातिवाद जो फैला रहे,
वो देश के नायक कहला रहे।

जातिगत आरक्षण एक दिन, समाज में आग लगायेगा।
मरेगी गरीब जनता और ये मुद्दा बनके रह जायेगा ।। .
(सहयोग - डा ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर )

Friday, January 1, 2010

बुन्देली भाषा के गौरव -शिवानन्द मिश्र 'बुंदेला '

बुन्देलखण्ड के लोककवि शिवानन्द मिश्र ‘बुन्देला’ का जन्म जनपद जालौन के ग्राम दहगुवाँ के विद्वता सम्पन्न परिवार में आषाढ़ कृष्ण 5, संवत् 1990 को हुआ था। उनको काव्य-प्रतिभा अपने पूज्य पिताजी एवं पूज्य काका से विरासत में प्राप्त हुई थी। बुन्देला जी के पूज्य पिता आचार्य पं0 कमलानन्द मिश्र ‘कंज’ एक ओर संस्कृत के उद्भट विद्वान थे, दूसरी ओर हिन्दी के आचार्य कवि थे। इसके साथ-साथ उनके काका पं0 दशाराम मिश्र ‘रामकवि’ रससिद्ध बुन्देली कवि थे।
श्री गाँधी इंटर कालेज, उरई से शिक्षण कार्य प्रारम्भ करने वाले बुन्देला जी सन् 1966 में आगरा विश्वविद्यालय से एम0ए0 करने के बाद कालेज में प्रवक्ता बने।
बुन्देली भाषा को राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में आपकी काव्य-रचनाओं का विशेष योगदान है।आपकी रचनाएँ शब्दों के माध्यम से चित्रात्मकता पैदा करने वालीं हैं बुन्देला जी की प्रतिनिधि काव्य-रचनाएँ बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी के पाठ्यक्रम में समाहित की गईं हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन से नियमित रूप से आपकी काव्य-रचनाओं का प्रसारण होता रहता है। राष्ट्रीय स्तर पर बुन्देली भाषा को कवि सम्मेलनों में आपने एक नई पहचान दी । आप मूलतः वीर रस के कवि के रूप में जाने जाते थे।
आपकी सृजन यात्रा में ‘देखो जो पीरो पट’ (बुन्देली खण्ड-काव्य), बिरिया सी झोर लइ (बुन्देली कविता संग्रह), क्रान्तिकारी बरजोर सिंह (बुन्देली काव्य), अभय सिंह अभई (खड़ी बोली कविता), अमर हरदौल आदि के साथ-साथ दो संस्मरण ‘सम्मेलन मंच पर’ तथा ‘बड़ों के बचकाने’ प्रमुख हैं।
इनकी बुन्देली कविता ‘बिरिया सी झोर लइ’ ने बुन्देला जी को तथा बुन्देली भाषा को नई पहचान दी। यहाँ आपकी यही कविता प्रस्तुत है-

तुरकन ने तिली सी अकोर लइ, गोरन ने गगरी सी बोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने, परजा कों बिरिया सी झोर लइ
नेतन की बातन में घातें हैं।
इनके हैं दिन हमाईं रातें हैं।
मारपीट गारिन को समझत जे,
सब दुधार गैया की लातें हैं।
राजनीति कों तनक मरोर लइ, ढेर भरी सम्पदा अरोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लइ।
आउते जो गाँव उर गमैंयन में।
बैठते टिराय चार भैंयन में।
सांचो सो रामराज हुइ जातो,
गाउते मल्हार उन मड़ैंअन में।
कील कील जितै की तंगोर लइ, बूंद-बूंद रकत की निचोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लई
दओ उसेय पुलिस की पतेली ने।
लओ उधेर मुंसपी तसीली ने।
लील्हें सब लेत हैं किसानइं कों,
चींथ खाओ जजी ने वकीली ने।
मका केसी अड़िया चिथोर लइ, सहद की छतनियां सी टोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लइ।
दूध घी निकारें हम देहाती।
कतर कतर करब पक गई छाती।
मोंड़न के पेट काट बेंचत हैं,
खाय खाय बूस गये शहराती।
मिली तो महेरिअइ भसोर लइ, अमिअंन की गुठलिअइ चचोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लइ।
(
सौजन्य से -डा ० कुमारेन्द्र सिंह )