Wednesday, February 24, 2010

'नश्तर' साहिब की ग़ज़ल

बाबू हरगोविंद दयाल श्रीवास्तव 'नश्तर' उर्दू अदब के एक नायाब फनकार थे । पेश है उनकी एक ग़ज़ल -
...................दास्ताँ ............................
बंधा कल कुछ ऐसा ,समां कहते-कहते ;
कि मै रो दिया , दास्ताँ कहते -कहते
फ़साना तो छेड़ा है ,डरता हूँ लेकिन ;
कहीं रुक जाये ,जुबाँ कहते -कहते
वो सुनने पै आयें ,तो खूबिये किस्मत ;
जुबाँ रुक गयी , दास्ताँ कहते -कहते
कोई चल दिया , दास्ताँ कहते-कहते ;
कोई रह गया, दास्ताँ कहते -कहते
जहाँ दास्ताओं का, रुकना सितम था ,
वहीँ रूक गया , दास्ताँ कहते -कहते
उन्हें डर है उनका, फ़साना कह दें ;
कहीं अपनी हम ,दास्ताँ कहते-कहते
जो दुश्मन करता,किया वह इन्होंने ;
जिन्हें हम थके ,दास्ताँ कहते -कहते
जुबाँ रोक ली है ,मुहब्बत में अक्सर ;
मुहब्बत की मजबूरियाँ कहते -कहते
कुछ ऐसी माहौल में , बेदिली थी;
कि मै खुद रूक गया,दास्ताँ कहते-कहते
उकताये जब , सुनने वाले हमारे ;
हमीं रुक गये, दास्ताँ कहते -कहते
उम्मीदें वफ़ा क्या करूँ ,उनसे 'नश्तर' ;
बदल दें जो अपनी जुबाँ कहते -कहते
(सौजन्य से -डा ० निर्मल सिन्हा )