बाबू हरगोविंद दयाल श्रीवास्तव 'नश्तर' उर्दू अदब के एक नायाब फनकार थे । पेश है उनकी एक ग़ज़ल -
...................दास्ताँ ............................
बंधा कल कुछ ऐसा ,समां कहते-कहते ;
कि मै रो दिया , दास्ताँ कहते -कहते ।
फ़साना तो छेड़ा है ,डरता हूँ लेकिन ;
कहीं रुक न जाये ,जुबाँ कहते -कहते ।
वो सुनने पै आयें ,तो खूबिये किस्मत ;
जुबाँ रुक गयी , दास्ताँ कहते -कहते ।
कोई चल दिया , दास्ताँ कहते-कहते ;
कोई रह गया, दास्ताँ कहते -कहते ।
जहाँ दास्ताओं का, रुकना सितम था ,
वहीँ रूक गया , दास्ताँ कहते -कहते ।
उन्हें डर है उनका, फ़साना न कह दें ;
कहीं अपनी हम ,दास्ताँ कहते-कहते ।
जो दुश्मन न करता,किया वह इन्होंने ;
जिन्हें हम थके ,दास्ताँ कहते -कहते ।
जुबाँ रोक ली है ,मुहब्बत में अक्सर ;
मुहब्बत की मजबूरियाँ कहते -कहते ।
कुछ ऐसी माहौल में , बेदिली थी;
कि मै खुद रूक गया,दास्ताँ कहते-कहते।
न उकताये जब , सुनने वाले हमारे ;
हमीं रुक गये, दास्ताँ कहते -कहते ।
उम्मीदें वफ़ा क्या करूँ ,उनसे 'नश्तर' ;
बदल दें जो अपनी जुबाँ कहते -कहते ।
(सौजन्य से -डा ० निर्मल सिन्हा )
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उम्मीदें वफ़ा क्या करूँ ,उनसे 'नश्तर' ;
ReplyDeleteबदल दें जो अपनी जुबाँ कहते -कहते
बहुत सुन्दर रचना. बधाई.
आपको और आपके परिवार को होली पर्व की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें!
ReplyDeletenice
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