Thursday, September 15, 2011

गोपाल कृष्ण सक्सेना 'पंकज' की ग़ज़ल

पृष्ठ सारा भर गया
पृष्ठ सारा भर गया , बस हाशिया बाकी रहा ,
जिंदगी मैं मौत का ही काफिया बाकी रहा
अक्षरों के वंश में अब ताजपोशी के लिये ,
शिष्टता के नाम पर बस शुक्रिया बाकी रहा
जिंदगी हिस्से की अपनी,हम कभी के जी लिये ,
साँस ही लेने का अब तो सिलसिला बाकी रहा
मौत आई थी हमें लेने मगर जल्दी में थी ,
बोरिया तो ले गयी पर बिस्तरा बाकी रहा
लोग मिलते हैं हमें कोने -फटे - ख़त की तरह ,
गम गलत करने को केवल डाकिया बाकी रहा


शिव लगे सुन्दर लगे
शिव लगे, सुन्दर लगे , सच्ची लगे ,
बात कुछ ऐसी कहो , अच्छी लगे
मुद्दतों से मयकदों में बंद है ,
अब ग़ज़ल के जिस्म पर मिटटी लगे
गीत प्राणों का उपनिषद् था कभी ,
अब महज बाजार की रद्दी लगे
रक्स करती देह उनकी ख्वाब में ,
तैरती डल झील की रद्दी लगे
जुल्फ के झुरमुट में बिंदिया आपकी ,
आदिवासी गाँव की बच्ची लगे
याद माँ की उँगलियों की हर सुबह,
बाल में फिरती हुई कंघी लगे
जिंदगी अपनी समय के कुम्भ में ,
भीड़ में खोयी हुई लड़की लगे
जिस्म 'पंकज ' का हुआ खँडहर मगर,
आँख में बृज भूमि की मस्ती लगे

Sunday, August 7, 2011

गोपाल कृष्ण सक्सेना 'पंकज' की ग़ज़ल


बुन्देलखंड के जालौन (उरई )के मूल निवासी एवं मध्य प्रदेश छिदवाडा में अंगेजी साहित्य के प्रोफ़ेसर स्व ० गोपाल कृष्ण सक्सेना 'पंकज ' हिंदी साहित्य का एक चिर परिचित नाम है। मध्य प्रदेश के साहित्यिक परिवेश में उनका बड़ा सम्मान था । उनकी सुमधुर स्वर लहरी कवि सम्मेलनों में एक अनोखा समां बाँध देती थीं. साहित्य जगत उन्होंने हिंदी ग़ज़ल को एक नई पहचान दी है । प्रस्तुत है उनकी एक ग़ज़ल -
हिंदी ग़ज़ल
उर्दू की नर्म शाख पर रुद्राक्ष का फल है ,
सुदर को शिव बना रही हिंदी ग़ज़ल है
इक
शाप ग्रस्त प्यार में खोयी शकुंतला,
दुष्यंत को बुला रही हिंदी ग़ज़ल है ,
ग़ालिब के रंगे शेर में ,खय्याम के घर में,
गंगाजली उठा रही हिंदी ग़ज़ल है
फारस की बेटियां है अजंता की गोद में ,
सहरा में गुल खिला रही हिंदी ग़ज़ल है
आँखों में जाम , बाँहों में फुटपाथ समेटे ,
मिटटी का सर उइहा रही हिंदी ग़ज़ल है
जिस रहगुज़र पर मील के पत्थर नहीं गड़े ,
उन पर नज़र गडा रही ,हिंदी ग़ज़ल है
गिनने लगी है उँगलियों पे दुश्मनों के नाम,
अपनों को आजमा रही हिंदी ग़ज़ल है
सुख-दुःख ,तलाश ,उलझनें ,संघर्ष की पीड़ा ,
सबको गले लगा रही हिंदी ग़ज़ल है
पंकज ने तो सौ बार कहा दूर ही रहना,
होठों पे फिर भी रही हिंदी ग़ज़ल है

Monday, February 7, 2011

डा ० बृजेश कुमार - एक विलक्षण साहित्यिक व्यक्तित्व

शहर के दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व प्राध्यापक एवं साहित्यिक पत्रिका स्पंदन के प्रधान सम्पादक डॉ0 ब्रजेश कुमार का मंगलवार को प्रातः निधन हो गया। वे 73 वर्ष के थे। डॉ0 ब्रजेश कुमार की शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई और अध्ययन पूर्ण करने के बाद उन्होंने उरई को अपनी कर्मस्थली के रूप में चयनित किया और महाविद्यालय को दो दशक से अधिक समय तक अपनी सेवायें प्रदान की।
उत्कृष्ट साहित्यिक प्रतिभा के धनी डॉ0 ब्रजेश का रंगमंच के प्रति भी जबरदस्त लगाव था। उन्होंने उरई जैसे छोटे से शहर में आज से लगभग 25 वर्ष पूर्व जबकि शहर में रंगमंचीय कार्यक्रमों के प्रति लोगों की विशेष रुचि नहीं थी, तब उन्होंने थैंक्यू मिस्टर ग्लॉड, लहरों के राजहंस, घासीराम कोतवाल जैसे विश्वप्रसिद्ध नाटकों का मंचन करवाया। इसके साथ ही उन्होंने नाटकों को प्रादेशिक स्तर पर भी निदेर्शित करके उरई को रंगमंच के क्षेत्र में विशेष पहचान दी। रंगमंच और सांस्कृतिक कार्यों के प्रति विशेष रुचि रखने के कारण ही उन्होंने 25 वर्ष पूर्व सांस्कृतिक एवं रंगमंचीय संस्था ‘वातायन’ की स्थापना कर शहर में सांस्कृतिक वातावरण का निर्माण किया जो आज भी निरन्तर इस ओर प्रगति कर रही है।
रंगमंच के प्रति स्नेह और साहित्य- लेखन के प्रति अनुराग रखने के कारण उन्होंने कई नाटकों तथा कविताओं की सर्जना की। ओरछा की नगरबधू, लाला हरदौल आदि जैसे स्थानीय विषयों के द्वारा उन्होंने बुन्देली संस्कृति को भी जनता के सामने रखा। साहित्य अनुराग के कारण ही वे सेवानिवृत्ति के बाद भी साहित्य से जुड़े रहे। इसी अनुराग के कारण डॉ0 ब्रजेश कुमार ने वर्ष 2005 में उरई से चौमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘स्पंदन’ का प्रकाशन भी शुरू किया। उनके प्रधान सम्पादकत्व में निकलने वाली स्पंदन ने अपने अल्प समय में ही काफी प्रसिद्धि प्राप्त की और देश-विदेश में नाम कमाया।
अपनी सेवानिवृत्ति के बाद वे काफी समय तक उरई शहर में ही रहे और फिर अपनी आयु और शारीरिक अस्वस्थता के कारण वे अपने इकलौते पुत्र अभिनव उन्मेश कुमार के साथ रहने लगे। अन्तिम समय तक वे किसी न किसी रूप से स्वयं को सक्रिय बनाये रखे रहे। वे अपने पीछे अपनी पत्नी, पुत्री-दामाद, पुत्र-पुत्रबधू, नाती-नातिनों को छोड़ गये।
यह और बात है कि अपनी शारीरिक अस्वस्थता के कारण डॉ0 ब्रजेश कुमार अन्तिम समय में रंगमंच और साहित्य से पूर्ण रूप से नहीं जुड़े रह सके किन्तु यह सत्य है कि उनका जाना रंगमंच के क्षेत्र में, साहित्य के क्षेत्र में अपूरणीय क्षति है। इस क्षति को लम्बे समय तक भरा जा पाना सम्भव नहीं है। उन्होंने उरई जैसे छोटे नगर को रंगमंच के प्रति, साहित्य के प्रति जागरूक किया और यहां के लोगों में इनके प्रति लगाव भी पैदा किया।


आना नहीं आंसू बहाने

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प्राण रोवेंगे मगर आना नहीं आंसू बहाने।

जा रहा हूँ मैं अकेला,

छोड़ कर संबल तुम्हारा।

पहुँच पाऊँगा जहाँ तक,

ढूँढ लूँगा मैं किनारा।

पर कहीं यदि याद आयी मीत तेरे साथ की तो।

झपकती पलकें उठा कर तुम न फ़िर जगाने।।

अंत तक बढ़ता चलूँगा,

साँस का लेकर सहारा।

मधुर दिन की याद होगी,

प्रीत का होगा इशारा।

पर जो थक कर, चूर होकर, रात में मैं ढुलक जाऊं।

मन की पीढा जागती होगी न आना तुम सुलाने॥

देख पाओगे मगर क्या,

मीत मेरे अंत को भी?

सर मेरा पत्थर पर होगा,

घास की बिस्तर बनेगी।

चू पड़ेंगे निलय के कुछ फूल पंखुरीहीन होकर।

पहन लूँगा मैं कफ़न आना नहीं अंजलि चढाने॥