उत्कृष्ट साहित्यिक प्रतिभा के धनी डॉ0 ब्रजेश का रंगमंच के प्रति भी जबरदस्त लगाव था। उन्होंने उरई जैसे छोटे से शहर में आज से लगभग 25 वर्ष पूर्व जबकि शहर में रंगमंचीय कार्यक्रमों के प्रति लोगों की विशेष रुचि नहीं थी, तब उन्होंने थैंक्यू मिस्टर ग्लॉड, लहरों के राजहंस, घासीराम कोतवाल जैसे विश्वप्रसिद्ध नाटकों का मंचन करवाया। इसके साथ ही उन्होंने नाटकों को प्रादेशिक स्तर पर भी निदेर्शित करके उरई को रंगमंच के क्षेत्र में विशेष पहचान दी। रंगमंच और सांस्कृतिक कार्यों के प्रति विशेष रुचि रखने के कारण ही उन्होंने 25 वर्ष पूर्व सांस्कृतिक एवं रंगमंचीय संस्था ‘वातायन’ की स्थापना कर शहर में सांस्कृतिक वातावरण का निर्माण किया जो आज भी निरन्तर इस ओर प्रगति कर रही है।
रंगमंच के प्रति स्नेह और साहित्य- लेखन के प्रति अनुराग रखने के कारण उन्होंने कई नाटकों तथा कविताओं की सर्जना की। ओरछा की नगरबधू, लाला हरदौल आदि जैसे स्थानीय विषयों के द्वारा उन्होंने बुन्देली संस्कृति को भी जनता के सामने रखा। साहित्य अनुराग के कारण ही वे सेवानिवृत्ति के बाद भी साहित्य से जुड़े रहे। इसी अनुराग के कारण डॉ0 ब्रजेश कुमार ने वर्ष 2005 में उरई से चौमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘स्पंदन’ का प्रकाशन भी शुरू किया। उनके प्रधान सम्पादकत्व में निकलने वाली स्पंदन ने अपने अल्प समय में ही काफी प्रसिद्धि प्राप्त की और देश-विदेश में नाम कमाया।
अपनी सेवानिवृत्ति के बाद वे काफी समय तक उरई शहर में ही रहे और फिर अपनी आयु और शारीरिक अस्वस्थता के कारण वे अपने इकलौते पुत्र अभिनव उन्मेश कुमार के साथ रहने लगे। अन्तिम समय तक वे किसी न किसी रूप से स्वयं को सक्रिय बनाये रखे रहे। वे अपने पीछे अपनी पत्नी, पुत्री-दामाद, पुत्र-पुत्रबधू, नाती-नातिनों को छोड़ गये।
यह और बात है कि अपनी शारीरिक अस्वस्थता के कारण डॉ0 ब्रजेश कुमार अन्तिम समय में रंगमंच और साहित्य से पूर्ण रूप से नहीं जुड़े रह सके किन्तु यह सत्य है कि उनका जाना रंगमंच के क्षेत्र में, साहित्य के क्षेत्र में अपूरणीय क्षति है। इस क्षति को लम्बे समय तक भरा जा पाना सम्भव नहीं है। उन्होंने उरई जैसे छोटे नगर को रंगमंच के प्रति, साहित्य के प्रति जागरूक किया और यहां के लोगों में इनके प्रति लगाव भी पैदा किया।
आना नहीं आंसू बहाने
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प्राण रोवेंगे मगर आना नहीं आंसू बहाने।
जा रहा हूँ मैं अकेला,
छोड़ कर संबल तुम्हारा।
पहुँच पाऊँगा जहाँ तक,
ढूँढ लूँगा मैं किनारा।
पर कहीं यदि याद आयी मीत तेरे साथ की तो।
झपकती पलकें उठा कर तुम न फ़िर जगाने।।
अंत तक बढ़ता चलूँगा,
साँस का लेकर सहारा।
मधुर दिन की याद होगी,
प्रीत का होगा इशारा।
पर जो थक कर, चूर होकर, रात में मैं ढुलक जाऊं।
मन की पीढा जागती होगी न आना तुम सुलाने॥
देख पाओगे मगर क्या,
मीत मेरे अंत को भी?
सर मेरा पत्थर पर होगा,
घास की बिस्तर बनेगी।
चू पड़ेंगे निलय के कुछ फूल पंखुरीहीन होकर।
पहन लूँगा मैं कफ़न आना नहीं अंजलि चढाने॥
शायद ही कोई ऐसा होगा जो अंकल के संपर्क में आया हो और उनसे नाराज हुआ हो, साहित्य के क्षेत्र में उनकी कम किन्तु अमूल्य धरोहर हमें देखने को मिलती है.
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